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कविता

सच्ची आग से जो कम नहीं जरा भी

राजकुमार कुंभज


ग्रीष्म में ही खिलता है गुलमुहर
लेकिन रह-रहकर याद आता है दिसंबर भी
और जरूरी जरूरतें क्यों फिर-फिर वे ही वे ही
जीवन में मई-जून जो ?
मैंने की कोशिशें और पाया यह अर्द्धसत्य
कि ग्रीष्म में ही आता है बारिश का भ्रूण
कि ग्रीष्म में ही पकती हैं कैरियाँ जहाँ-तहाँ
कि ग्रीष्म में ही आती हैं रातरानी की मादकता
और मधुमालती की खुशबू भी अपने एकांत तक
ग्रीष्म में ही मिलता है असल पता पानी की संपूर्णता का
नदी, तालाब, झरने और पोखर तक बोलते हैं तब ही
मैं भी, मैं भी तब ही अपनी भाषा में
होता हूँ नाव और पतंग कागज की
बिन पानी, बिन नदी, बिन नाव, बिन नाविक और बिन डोर
पार करना ही होता है जीवन-समुद्र एक न एक दिन सबको
समुद्र जो प्रेम, प्रेम का कच्चा चिट्‍ठा, सच्चा ताप
सच्ची आग से जो कम नहीं जरा भी।

 


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